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पवार-कांग्रेस के सियासी दांव-पेच से फंसी शिवसेना, फजीहत के बाद डैमेज कंट्रोल

इस पूरी सियासी खींचतान में एक तरफ शिवसेना को अपने 30 साल पुराने रिश्ते को खत्म करना पड़ा है. तो दूसरी तरफ विरोधी विचारधारा वाली कांग्रेस और एनसीपी से सहयोग के लिए आगे आना पड़ा है. उद्धव ठाकरे ने खुद सोनिया गांधी को फोन कर बात की है और समर्थन मांगा. साथ ही ठाकरे ने एनसीपी प्रमुख शरद पवार के साथ भी बैठक की है. ये दोनों ही घटनाएं शिवसेना के सियासी इतिहास में बेहद अलग रहीं.

  • शिवसेना ने बीजेपी से तोड़ा 30 साल पुराना गठबंधन
  • NDA से अलग होकर भी सरकार नहीं बना सकी शिवसेना
  • उद्धव ने खुद सोनिया गांधी और शरद पवार से की बात

24 अक्टूबर को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो हर तरफ ‘फिर एक बार बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की सरकार’ की चर्चा हुई. लेकिन नतीजों की शाम ही शिवसेना ने आंख तरेरनी शुरू कर दी. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्यमंत्री का पद बेहद महत्वपूर्ण बताते हुए अपने इरादे जाहिर कर दिए. इसके बाद शिवसेना की तरफ से 50-50 फॉर्मूले का हवाला देते हुए निरंतर बयानबाजी होती रही. शिवसेना का यह रुख देख बीजेपी ने भी दो टूक कह दिया कि जो फॉर्मूला तय हुआ था उसमें सीएम पद था ही नहीं. देवेंद्र फडणवीस का यह बयान शिवसेना को इतना चुभा कि आज महाराष्ट्र में राज्यपाल शासन की नौबत आ गई है.

इस पूरे संग्राम में शिवसेना अपना मुख्यमंत्री होने का दावा करती रही, लेकिन दिन-ब दिन फंसती भी गई. शिवसेना पहले अपनी सहयोगी बीजेपी को चेताती रही और मुख्यमंत्री पद ढाई-ढाई साल बांटने की आवाज उठाती रही. बीजेपी इस बात पर राजी नहीं हुई तो शिवसेना ने दूसरे विकल्पों का जिक्र कर पूरी सियासत को ही मोड़ दिया. शिवसेना नेता संजय राउत सार्वजनिक तौर पर कहने लगे कि उनके पास 170 विधायकों का समर्थन है. एनसीपी और कांग्रेस के समर्थन की बात भी खुले तौर पर शिवसेना की तरफ से सामने आने लगी.

हालांकि, इस पूरे सियासी ड्रामे में शिवसेना की तरफ से एनसीपी और कांग्रेस से कोई औपचारिक बातचीत देखने को नहीं मिली. लेकिन शिवसेना अपने तेवर दिखाती रही. इसका नतीजा ये हुआ कि बीजेपी अकेले पड़ गई. राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते बीजेपी को सरकार का ऑफर दिया, जिसके बाद रविवार (10 नवंबर) शाम बीजेपी ने राज्यपाल को सूचित कर दिया कि वह अपने दम पर सरकार बनाने में सक्षम नहीं है और उसके पास किसी और का समर्थन नहीं है.

बीजेपी के इनकार के बाद राज्यपाल ने उसी दिन शिवसेना को ऑफर दिया और 24 घंटे के अंदर सरकार का दावा पेश करने के लिए कहा. इस ऑफर को पूरा करने के लिए शिवसेना को एनसीपी और कांग्रेस का समर्थन जरूरी था. लिहाजा, बातचीत और चर्चाओं का दौर शुरू हुआ. एनसीपी ने शर्त रखी कि शिवसेना एनडीए से बाहर होती है तो वह समर्थन पर विचार करेगी. शिवसेना ने एनसीपी की यह शर्त मान ली और अगली सुबह यानी 11 नवंबर को मोदी कैबिनेट में अपने इकलौते मंत्री अरविंद सावंत का इस्तीफा करा दिया.

एनडीए से मंत्री निकाला, फिर भी नहीं मिला समर्थन

11 नवंबर को एक तरफ अरविंद सावंत का इस्तीफा हुआ तो दूसरी तरफ दिल्ली में कांग्रेस और मुंबई में एनसीपी की बैठकों का दौर शुरू हुआ. देर शाम तक बैठकें चलती रहीं, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल पाया और शिवसेना अपना दावा पेश नहीं कर सकी, जिसके बाद राज्यपाल ने एनसीपी को सरकार का ऑफर दे दिया. एनसीपी भी समर्थन पत्र देने के बजाय राज्यपाल से वक्त मांगने लगी जिसके बाद राज्यपाल की सिफारिश पर राष्ट्रपति शासन लागू हो गया.

30 साला पुराना रिश्ता टूटा, विचारधारा से समझौता

इस पूरी सियासी खींचतान में एक तरफ शिवसेना को अपने 30 साल पुराने रिश्ते को खत्म करना पड़ा है. तो दूसरी तरफ विरोधी विचारधारा वाली कांग्रेस और एनसीपी से सहयोग के लिए आगे आना पड़ा है. उद्धव ठाकरे ने खुद सोनिया गांधी को फोन कर बात की है और समर्थन मांगा. साथ ही ठाकरे ने एनसीपी प्रमुख शरद पवार के साथ भी बैठक की. ये दोनों ही घटनाएं शिवसेना के सियासी इतिहास में बेहद अलग रहीं, लेकिन डैमेज कंट्रोल के लिए उद्धव ठाकरे को ऐसा करना पड़ा.

विचारधारा पर समझौता कर चुकी शिवसेना के सामने सरकार में हिस्सेदारी भी एक बड़ी चुनौती है. एनसीपी खेमे से खबर है कि वह शिवसेना के साथ सीएम पद ढाई-ढाई साल बांटना चाहती है. साथ ही कांग्रेस के डिप्टी सीएम और स्पीकर की भी जानकारी सामने आ चुकी है. इसके अलावा सूत्रों का ये भी कहना है कि कांग्रेस कैबिनेट में तीनों दलों के लिए बराबर हिस्सेदारी और महत्वपूर्ण मंत्रालयों का भी समान बंटवारा चाहती है.

बीजेपी का साथ छोड़ चुकी शिवसेना को अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री होने की ख्वाहिश पूरी करने के लिए कांग्रेस-एनसीपी का साथ पाना जरूरी है. अब देखना ये होगा कि कांग्रेस और एनसीपी किन शर्तों के साथ शिवसेना को समर्थन देती हैं और उद्धव ठाकरे किस हद तक समझौता कर पाते हैं.